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बेड़ियों में आजादी

( १ )  रात्रि का द्वितीय प्रहर हो चला था, अश्विन की शीत हवाएँ पूस सी सिहरन दे रही थीं और हर पुलक में  न जाने कितनी स्मृतियाँ हावाओं सी छू कर निकल जा रही  थीं।त्रयोदशी के ‘अपूर्ण चंद्र 'से मौन संवाद करती  नंदिनी श्वेत दुशाला ओढ़े ‘ पूर्ण चंद्रिका’ सी उसे ही प्रतिस्पर्धा दे रही थी ।आँसूओं के अति स्राव के कारण उसकी कज्जल  हो चुकी आँखों के किनारे, चंद्रमा पे लगे दाग हो चले थे। जैसे चाँद  दाग को चाह कर हटा नहीं पाता है  वैसे ही नियति की यातना को आज नंदिनी। तुषार कण वातावरण में आच्छादित होकर  जैसे आज उसकी पीड़ा में सम्मिलित हो अश्रुक्रंदन कर रहे थे और नंदिनी मन में सहस्रों प्रश्न व उद्विग्नताएँ लिए निरीह निराश्रित हो चाँद को एकटक निहार रही थी।  छत के किनारे के सीढ़ियों से अनिरुद्ध प्रवेश करता है, पीछे से दबे पाँव अपराध भाव लिए असहाय सा। दीदी!  ठंड लग जाएगी बिमार हो जाओगी,  आप तनिक विश्राम कर लो। नंदिनी आँखें नीचे कर लेती है और आगे बढ़ती है।दीदी मुझे माफ कर दो  मैं पिता जी से....। दोनों जड़ एक लंबा अंतराल ; नंदिनी अनिरूद्ध के हाथ पर हाथ रखती है उसकी आँखे झर झर बहने लगती हैं, नंदिनी हाथ सि