बेड़ियों में आजादी

( १ ) 
रात्रि का द्वितीय प्रहर हो चला था, अश्विन की शीत हवाएँ पूस सी सिहरन दे रही थीं और हर पुलक में 
न जाने कितनी स्मृतियाँ हावाओं सी छू कर निकल जा रही  थीं।त्रयोदशी के ‘अपूर्ण चंद्र 'से मौन संवाद करती  नंदिनी श्वेत दुशाला ओढ़े ‘ पूर्ण चंद्रिका’ सी उसे ही प्रतिस्पर्धा दे रही थी ।आँसूओं के अति स्राव के कारण उसकी कज्जल  हो चुकी आँखों के किनारे, चंद्रमा पे लगे दाग हो चले थे। जैसे चाँद  दाग को चाह कर हटा नहीं पाता है  वैसे ही नियति की यातना को आज नंदिनी। तुषार कण वातावरण में आच्छादित होकर  जैसे आज उसकी पीड़ा में सम्मिलित हो अश्रुक्रंदन कर रहे थे और नंदिनी मन में सहस्रों प्रश्न व उद्विग्नताएँ लिए निरीह निराश्रित हो चाँद को एकटक निहार रही थी। 
छत के किनारे के सीढ़ियों से अनिरुद्ध प्रवेश करता है, पीछे से दबे पाँव अपराध भाव लिए असहाय सा। दीदी!  ठंड लग जाएगी बिमार हो जाओगी,  आप तनिक विश्राम कर लो। नंदिनी आँखें नीचे कर लेती है और आगे बढ़ती है।दीदी मुझे माफ कर दो  मैं पिता जी से....। दोनों जड़ एक लंबा अंतराल ; नंदिनी अनिरूद्ध के हाथ पर हाथ रखती है उसकी आँखे झर झर बहने लगती हैं, नंदिनी हाथ सिकोड़ती है और मानो कह रही हो कि छोटे इसमें तुम क्या करते....। 
अपनी विवशता की छाया लिए सीढ़ियों से उतर कर सामने के कक्ष में नंदिनी प्रवेश करती है और जाकर उदर के बल लेट बिस्तर की सिलवटों को खरोंच कर रो  पड़ती है । आज कमरे की दीवारें भी मौन थीं, उसके भगवान भी। 
आँगन के बाहर दालान से सटे कमरे में नंदिनी की माँ 
और उसके पिता बिस्तर पर लेटे हुए थे | पीठ की ओर सोई सुजाता भी जग रही थी और मन ही मन पति और संतान दोनों की पीड़ा में संतुलन बनाती हुई सुजाता भी। अवधेश बिस्तर से उठ जाता है | “कहाँ जा रहे हैं आप” , रसोई से पानी पी कर आता हूँ ।“तुम सोई क्यों नहीं, सो जाओ अब  नंदिनी की माँ” | सुजाता  सामने मेज पर पड़े  जग को देख रही थी जिसमें पानी शेष था...।  
रसोई के पास से किसी की  आहट सुन कर नंदिनी चादर ओढ़ लेती है पर कक्ष की मध्यम रौशनी में अपनी सिहरन स्थिर नहीं कर पाती है अवधेश यह देखता है और मुट्ठी कस कर मूँद खुद को निष्ठुर करता है मानों बचपन से लेकर आजतक का सारा प्रेम बौना पड़ गया हो  बाप का। 

                           ( २ ) 
घर पर अतिथियों के जलपान आदि की व्यवस्था चल रही थी । सहसा द्वार खटखटाने की आवाज सुनकर सुजाता द्वार खोलने जाती है, रूको नंदिनी की माँ मैं देखता हूँ। अवधेश द्वार खोलता है,  उसका मित्र अतिथियों संग खड़ा रहता है।  जी आइए न...  प्रणाम अवधेश जी,  प्रणाम दिनेश जी प्रणाम भाभी जी, आइए न अपना ही घर समझिए।हाँ - हाँ क्यों नहीं अब तो ये अपना ही घर है....एक ठहाका लगा कर  हँसती  दिनेश की धर्मपत्नी अनामिका। दिनेश गंभीर मुद्रा से अनामिका को देखते हुए... थोड़ा कम हँसो तुम। सभी बैठते हैं, अनामिका अवधेश से पूछती है, जी बहन जी कहाँ हैं? जी आ गई , वो मैं रसोई में...।अरे बैठिए न सुजाता जी अब हम मेहमान थोड़ी न हैं। जी कैसे हो गौरव बेटा, मैं ठीक हूँ आंटी....  बस आफिस की भाग दौड़ से थोड़ा थक गया हूँ माँ ने कहा तो सीधे आफिस से डायरेक्ट आ गया। अनामिका कहती है, “जी हमारा बेटा लाखों में एक है,,,, काम और परिवार में सामंजस्य बनाना तो कोई सीखे इससे अब आप तो निश्चिन्त ही रहिए ; नंदिनी को भी  हमने एक बार में देख कर ही पसंद कर लिया था,  शालीनता और संस्कार उसकी तस्वीर से ही प्रगट हो रहे थे। ”
नंदिनी बैठके में चाय नाश्ते की ट्रे लेकर प्रवेश करती है,  सुजाता उसकी सहायता के लिए और बाकी नाश्ते को लेने रसोई में जाती है। “नंदिनी,  तुम बैठो आराम से ; और बताओ कैसी हो? कैसा रहा तुम्हारा पीएचडी का इंटर्व्यू?”  ‘ जी आंटी वो अच्छा रहा |’ आप चाय लीजिए न अनामिका जी, नंदिनी का पिता बोलता है।  सभी बिस्किट खाते हुए  चाय की चुस्कियाँ लेते हैं।  दिनेश माहोल को हँसी मजाक से खुशनुमा बनाता  है और चाय की चुस्कियों के साथ अनामिका की हर बात में  माहोल को गंभीर कर देती है।
नंदिनी तुम इस रिश्ते से खुश हो न ? जी आंटी !  
“अच्छा बेटा तुम्हें कभी कोई  और लड़का पसंद आया क्या मतलब कालेज में कभी कोई......?”दिनेश हाथ पीछे कर अनामिका को चिंगोटता है और कहता है तुम चुप रहो ऐसे नहीं कहते हैं गौरव जाएगा न बात करने। आप तो चुप ही रहिए खुद तो कुछ पूछेंगे नहीं... अनामिका मुनमुनाती है। माहोल में एक गंभीर सन्नाटा छा जाता है। नंदिनी सिर झुकाए चुप चाप खुद को जड़ किए हुई थी। अवधेश के माथे पर पसीने की कुछ बूँदें थीं... उसने कहा जी दिनेश जी आप नमकीन लीजिए न। सुजाता!कहाँ रह गई पकोड़े लाओ न। गलियारे में सुजाता के पाँव ठंडे पड़ गये थे, गले में सिसकियों को दबाए कहती है.. जी आई  | सुजाता मेज पर पकोड़े रखते हुए नंदिनी का पीला पड़ा मुख देख रही थी।  गौरव तुम नंदिनी से बात कर लो अंदर जाकर ; दिनेश और अनामिका एक साथ बोलते हैं। जी माँ ।हाँ चाय पकौड़े तो वहीं हो जाएँगे।  ‘अब भाई नया जमाना है बच्चों को साथ रहना है अपने फैसले तसल्ली और एहतियात से तो ले लें और शादी भी रोज़ रोज़ थोड़ी न होती है '...अनामिका फिर खिलखिलाते हुए कहती है।अवधेश ,“जी क्यों नहीं, अनिरुद्ध जीजा जी को और दीदी को आँगन में ले जाओ।” 
अनिरुद्ध गौरव को लेकर बात करते हुए गलियारे से आँगन में ले जाता है पीछे पीछे नंदिनी भी मंथर गति से..... | जी आप लोग नाश्ता करिए, सुजाता सबको पकोड़े दो मैं एक जरुरी फोन निपटा कर आता हूँ। अवधेश थोड़े तेज-थोड़े धीमे पाँव से गलियारे में जाता है और आँगन की ओर उन्मुख नंदिनी को रोकर खींचकर हड़बड़ाहट में कमरे में ले जाता है....... | “नंदिनी देखो गौरव कुछ मत कहना, बेटा रिश्ता बहुत अच्छा है, वह सचिवालय में है अच्छी कमाई है इज्जत है और घर भी अच्छा है।”   पापा मैं कैसे छिपाऊँ....। देखो नंदिनी वर्तमान में जिओ और यही तुम्हारा भविष्य भी है।पापा कुणाल को मैं। चुप्प हो जाओ नंदिनी,  एकदम चुप्प। देखो मैंने बचपन से तुम्हें बहुत प्रेम दिया और कभी कोई कमी नहीं रखा,नंदिनी तुम्हे प्रतिष्ठा रखनी होगी घर की भी और स्वयं की भी....  “तुम्हें उस दिन की बात याद है न !”.... ये कहते हुए अवधेश बाहर निकल जाता है ।  नंदिनी दोनों हाथों से दुपट्टे के कोर हाथ में भींचती है और फूट पड़ती है...खुद को संभालने का प्रश्न नहीं था प्रश्न था अपनी आत्मा की निश्छलता का और बचपन से सच्चाई के साथ जीने के संस्कार का।
नंदिनी ये मान चुकी थी की उसका और कुणाल का कोई भविष्य नहीं है पर कुणाल से प्रेम झूठा तोनहीं था। 
“मैं क्यों छिपाऊँ खुद को..? नंदिनी हज़ार टुकड़ो में बिखर जाती है।” सुजाता कमरे में प्रवेश करती है और नंदिनी के आँसू आँचल से पोछती है...  बेटा अभी नहीं,  सब घर पे ही हैं तू टूट नहीं सकती, तेरे पापा ने बहुत मेहनत से ये रिश्ता....। तू जा न गौरव राह  देख रहा आँगन में वो अच्छा लड़का है। नंदिनी आँसू पोछती हुई निकलती है और अचानक रुक पर पीछे मुड़ कर सुजाता की ओर देखती है “ माँ उनके सवालों का...”देख तू उसे कुछ मत कहना... “ एक बार शादी हो जाए फिर सभी समझ जाते हैं एक दूसरे को......  और वो तुझे बहुत खुश रखेगा तुझे भी उससे प्यार... | ”नंदिनी आँख पोछते हुए निकल जाती है मानो उस प्यार शब्द और उसकी माँ की दिलाशाओं को अवहेलना प्रगट  करती हो। नंदिनी आँगन में सिर झुकाए प्रवेश करती है। 

                               (३) 
‘जी आप बैठिए न’।  गौरव हाथ में चाय की प्याली लिए नंदिनी को पास की कुर्सी पर बैठने का आग्रह करता है। दी आपलोग बातें करिये मैं जाता हूँ,  अनिरुद्ध यह कहते हुए बाहर चला जाता है। नंदिनी मैं आपको पसंद हूँ न , कोई दबाव तो नहीं? नंदिनी सिर हिला कर नहीं बोलती है।दोनों सिर झुका कर ही जमीन को देखते हुए प्रतिक्रियाएं दे रहे थे....यद्यपि गौरव बार बार नंदिनी को देखने के लिए सिर उठा ही लेता था ।नंदिनी की ओर देखकर गौरव बोलता है कि, “नंदिनी मुझे शादी के बाद बहुत प्यारी सी जिंदगी जीनी है, शादी और पत्नी को लेकर मेरे भी ढ़ेरों सपने रहे हैं ।जैसे खूब यात्राएँ करना पत्नी के लिए रोज़ कुछ उपहार ले आना खूब प्यार जताना और उससे खूब प्यार पाना। ”और सच बताऊँ मैं इन सपनों में अब आपको देखने लगा हूँ।  नंदिनी को एक अलग सा भार मन ही मन खाए जा रहा था गौरव की बातों में कुणाल की बातें मिल रही थीं और गौरव की हर बात में कुणाल ही दिख रहा था उसे,  नंदिनी अपराधबोध  और पिता के महत्वकांक्षाओं का द्वंद्व के बीच झूल रही थी। 
तब तक बाहर से बुलाने की आवाज आती है,  गौरव और नंदिनी उठकर बाहर बैठके की ओर चले जाते हैं। गौरव का मुस्कुराता हुआ चेहरा देखकर अनामिका अवधेश से कहती है कि ‘भाई साहब अब रिश्ता पक्का समझते हैं ’तभी दिनेश बोलता है अरे भाग्यवान सम्धी जी और सम्धन जी बोलो न।  अरे हाँ सम्धन जी आप तो गले मिलिये अब।अवधेश हाथ जोड़कर कहता है......  “ आपका बहुत बहुत  धन्यवाद दिनेश जी भाभी जी,मेरी बेटी सौभाग्यशाली है की उसे आपका घर मिल रहा है। ” हाँ हाँ क्यूँ नहीं अब इससे सस्ते में दस लाख के मामूली दहेज़ में आपको मेरे बेटे जैसा सुंदर सुयोग्य गुणवान दामाद कहाँ मिलेगा और सचिवालय में समीक्षा अधिकारी भी। ” दिनेश ठहाका लगाता है हाँ भाई हाँ हमारा गौरव है ही इतना अच्छा।नंदिनी आर्द्र नयनों से अपने पिता की ओर देखती है....  मानों आज सारे मूल्य सारे संस्कार एक विवशता में धरासायी हो गये थे। अच्छा तो हमें आज्ञा दीजिए जल्द ही पंडीत जी से आगे की रश्मों और विवाह की तिथि निश्चित करके आपको बताते हैं । अवधेश और सुजाता हाथ जोड़कर... “जी जरूर सम्धी जी,सम्धन जी”, नंदिनी अब आपकी ही बेटी है।  हाँ जरूर क्यों नहीं नंदिनी हमारी बहू भी है और बेटी भी। सभी दरवाजे पर एकत्रित होकर अभिवादन  करते हुए अतिथियों को विदा करते हैं। प्रसन्नता और उत्सव जैसे अवसर पर एक अजीब सी कसक और उदासी थी, इतनी की वह काल्पनिक हँसी न बन पाए। अवधेश सीधे अपनी कक्ष की ओर प्रस्थान करता है और सुजाता उसके पीछे उसकी तरफ जाती है.... | बैठके से एक रिक्तता और पहाड़ भर बोझ लिए नंदिनी अपने कक्ष में दौड़ते हुए जाती है.....। उसे उसदिन की सारी बातें एक एक करके याद आ जाती है जब उस दिन उसने माँ पापा से........  ।“नंदिनी और कुणाल का तेरह वर्षों का सुंदर रिश्ता जो कक्षा सातवीं से शुरू हुआ था ; दोनों उसे उम्र भर के बंधन में बाँधना चाहते थे।दोनों का समर्पण एक दूसरे के प्रति अटूट था।आज के समय में जब विवाह के बाद रिश्ते चल नहीं पा रहे हैं ऐसे में प्रेम को तेरह वर्षों से निभाना एक पूजा एक तपस्या जैसे हो चुका था।” कुणाल साफ्टवेयर इंजीनियर था,उसके घर वाले भी कुणाल और नंदिनी के रिश्ते को सहमति दे चुके थे अब बस प्रश्न था नंदिनी के घर वालों के मानने का। नंदिनी बड़ी आशा के साथ अपने और कुणाल के रिश्ते की गहराई और अन्योन्याश्रय अटूट संबंध को माता पिता के सामने रखना चाहती है।  मन में भय तो था पर दुलारी टापर इकलौती बिटिया को इतना प्यार मिला था कि उसे विश्वास था की घरवाले समझेंगे और स्वीकृति भी दे देंगे,, आखिरकार उसके माता पिता के लिए उसकी खुशी से बढ़ कर और क्या हो सकता था। दिन भर के इंतजार के बाद जब अवधेश आफिस से घर आता है और सुजाता पानी लेकर उसके पास जाती है तभी नंदिनी को सबसे उचित समय लगता है अपनी बात रखने का। नंदिनी मन में बहुत सारे सपनों और गहरी आशा लिए अपने ईश्वर समान माता पिता से सब कुछ कह डालती है, कि कैसे कुणाल उसे पास के मुहल्ले के गुंडों से बचपन में बचाया था ,कैसे उसे पढ़ाता था  ,कैसे कुणाल नंदिनी को इतना समझता था इतना प्रेम इतनी इज्जत इतना समर्पण उसे आज तक किसी से नहीं मिला था.......। अवधेश कुणाल के परिवार और कुणाल को जानता था वो बगल के मुहल्ले के ही थे। सारी बात सुनकर क्रोध से तनमना जाता है, उसे अपेक्षा नहीं था की उसकी अपनी बेटी ऐसा करेगी। “देखो नंदिनी एक तो इतने सालों से ये बात तुम रखी हुई हो और अब बेशर्मों की तरह उसका प्रदर्शन कर रही हो।मुझे इसकी न तो अपेक्षा थी और न ही मैं किसी भी कीमत पर ऐसा सोच सकता था, तुमने एक बार भी घर परिवार की प्रतिष्ठा की नहीं सोची?”  क्यों नंदिनी, क्या कमी रह गयी थी हमारे परवरिश और हमारे प्यार में ?क्या हमारा प्यार तुम्हें कम पड़ गया?  मैं तुम्हें और कुणाल को महज दोस्त के अलावा कुछ नहीं जानता था। यदा कदा तुम दोनों कभी साथ कालेज में दिख गये तो मैं सामान्य ही समझता था ।क्या ये उपहार है हमारे लाड प्यार का, क्या ये पारितोषिक है?  हमनें तुम्हे आवश्यकता से अधिक स्वतंत्रता दी ये हमारी भूल थी। अब खबरदार तुमने ऐसा कुछ सोचा भी तो...... | पापा कुणाल बहुत अच्छा लड़का है वो मुझसे बहुत प्यार करता है मुझे खुश भी रखेगा वो...पापा प्लीज़ ऐसा मत कहिए मैं उसके सिवा किसी और को अपने जीवनसाथी के रूप में सोच भी नहीं सकती,,, पापा उसका जाब भी बहुत  अच्छा है कोई कमी नहीं है....  पापा वो,,  चुप्प हो जाओ नंदिनी , तुमने सुना नहीं हमने क्या कहा, हमारी और उसकी बिरादरी में कोई समानता नहीं है और क्या कोई पैसे फेकेगा तो हम अपने कुल की इज्जत बेच देंगे,तुम मत भूलो की आस पास पूरे समाज में हमारे कुल खानदान की कितनी प्रतिष्ठा है। किसी भी कीमत पर तुम दोनों की शादी नहीं हो सकती और खबरदार तुम उससे बात की तो।  नंदिनी अवधेश के पैरों में गिर पड़ती है पापा मैंने आजतक आपसे कभी कुछ नहीं माँगा है, पापा मैं उसके बिना नहीं जी पाउँगी......  नंदिनी,“ तुम चाहती क्या हो? अगर तुमने अब उसके बारे में सोचा भी तो मैं और तुम्हारी माँ जहर खाकर पड़ जाएँगे बिस्तर पर....., फिर हमारी मौत के बाद तुम हमारी इज्जत खाकर उस लड़के से कर लेना शादी। ”तू समझती क्यों नहीं है जब पापा ने कह दिया तो क्यों नहीं मान जाती  है, तुझे पता है न इन्हें हार्ट की समस्या है....रोते हुए सुजाता नंदिनी से कहती है।  अवधेश का पूरा बदन काप रहा था ।वो पानी का ग्लास फेंकते हुए अपने कमरे में चला जाता है। आज जो हुआ उसकी कल्पना नंदिनी ने कभी जीवन में नहीं की थी  ।सबको एक साथ लेकर चलने वाली नंदिनी के सामने एक तरफ उसके माता पिता हो चुके थे और दूसरी तरफ उसका बाल्य प्रेम कुणाल। नंदिनी बिखर सी गई थी रोती हुई वह कमरे में जाती है और  कुणाल से फोन पर सारी बातें बताती है । आज तो उसे कुणाल की सबसे ज्यादा जरूरत रहती है ,वह आज चाहती है कि उसके गले लग कर जीभर रोले ।कुणाल के सहज सरल आलिंगन में उसे वात्सल्य स्वरूप में प्रेम मिलता है वो दुनिया की सबसे शांत और प्रिय जगह होती है उसकी । कुणाल के दोनों बाहों के मध्य वह अपना सारा जीवन समर्पित कर देना चाहिती थी ।“कुणाल मुझे तुमसे मिलना है अभी इसीवक्त ; तुम शांत हो जाओ हम स्कूल वाले पार्क में मिल लेते हैं मैं अभी निकलता हूँ , कुणाल ने नंदिनी से कहा।” नंदिनी अपने भाई अनिरुद्ध से अपनी सहेली के घर जाने का बहाना और दो घंटे में लौटने का आश्वासन देकर भागती हुई निकलती है.......।  अनिरुद्ध स्नातक का छात्र था उसे सब समझ आ रहा था वह चाहकर भी अपनी बहन को उसकी सभी राखियों के बदले यह उपहार नहीं दे सकता था। जाती हुई बहन को सजल नयनों से अनिरुद्ध देखता है ...वही बहन जो दुनिया की सबसे अच्छी बहन है, वही बहनजो उसे माँ पापा से ज्यादा प्यार दी है ,वही न जिसके पीछे वो हर बार पापा की डाँट से बचने के लिए छिप जाता था । स्कूल की ओर जाती नंदिनी की साँसे फूल रही थीं, आज उसके चलने में उन सभी गतियों से अधिक गति थी जिस गति में वो कुणाल से प्राय: मिलने जाया करती थी। आज का सूर्यास्त जैसे उसके दिवस की  अंतिम साध्य बेला हो ,चारों दिशाएँ घूम रही थी... पिता की बात उसे अंदर ही अंदर खाए जा रही थी।  कुणाल के साथ वह  आजीवन रहना चाहती थी पर माँ पापा का क्या....  जिनसे उसे सबसे ज्यादा प्रेम मिला था विश्वास मिला था आजादी मिली थी।  वो उन्हें छोड़ कर तो नहीं जा सकती उनकी इच्छा के विरुद्ध आज तक उसने कुछ किया ही कहाँ था। नंदिनी भागते हुए स्कूल पहुँची है जहाँ कुणाल पहले से उसका प्रतीक्षा कर रहा , नंदिनी दौड़ कर जाती और कुणाल के शर्ट से अपना सिर लगाती है  और फूट पड़ती है। आज न कुणाल अपनी बाहों में उसे लेता है और न नंदिनी उसे टाइट से पकड़ कर गले मिल पाती है। कुणाल के आँखों से आँसू निकल कर नंदिनी के सिर और माँग से बहते हुए माथे को स्पर्श कर रहे थे । “नंदिनी देखो तुम प्लीज़  रोना बंद करो तुम्हे पता है न मैं तुम्हें रोता न नहीं देख सकता। तुम्हीं तो मेरा साहस हो यार मैं आज जो कुछ बन पाया हूँ तुम्हारे साथ, तुम्हारे विश्वास के ही  कारण।शायद यही हमारी नियति थी।मैं किसी भी सूरत में नहीं कह सकता कि हम भाग कर.... और मैं जानता हूँ मेरी नंदिनी भी ऐसा नहीं सोच सकती है। मैंने तुम्हें जितना प्यार किया है उतना ही प्यार अंकल आंटी ने भी.....और उन्हें खोकर हम नया रिश्ता कैसे शुरू कर सकते हैं......।  कुणाल की जुबान लड़खड़ा रही थी वह नंदिनी के सामने टूटना नहीं चाहता था  पर जिसके सामने वो स्वयं से ज्यादा दूसरे में खुद को पाता है उस नंदिनी के समक्ष अधिक देर तक  अपनी पीड़ा आपना आकाश दुख  और जिंदगी भर के वर्षों से सहते सपनों की चीखों को छिपा नहीं सकता था.... । “तुम जाओ नंदिनी , घर पे माँ पापा प्रतीक्षारत होंगे....  तुम्हें मेरी कसम है अब रोना मत.......। ” ये कहते हुए कुणाल निकल जाता है।पलकों पर आँसुओं की एक बूँद में कुणाल के कई प्रतिबिंब बन रहे थे । नंदिनी कुणाल को दूर तक जाते देख रही थी ।उसका देह सूर्य के ढ़लते प्रकाश में मिल जा रहा था।  यह वही स्कूल था जहाँ उसने कुणाल के साथ पढ़ना शुरू किया था ।जहाँ वो हमेशा शाम को कुणाल से  मिल लिया करती थी। उसने सोचा भी नहीं था की कभी ये भी दिन आएगा जब उसे अपने प्राण से अंतिम बार मिलना होगा । कुणाल से दूर होना खुद से दूर होना था उसके लिए..... अपने अवशेष लिए बदहवास नंदिनी खड़ी देख रही थी। 
                                  (४)  
विवाह की तैयारियाँ घर में जोरों से चल रही थीं, घर में खरीदारियाँ हो रही थीं। प्रतिदिवस किसी न किसी अतिथि का आना जाना लगा ही हुआ था ।एक अलग सी चहल- पहल  थी किंतु इन सब में नंदिनी का मन भला किस प्रकार लगाए लगता।  फोन पे उसकी जब भी अब गौरव से बात विक-है तो गौरव के समक्ष वह खुद को अपराधी समझती है उसके हृदय का द्वंद्व दिन प्रतिदिन सघन होते जाता है ।कभी मन करता है की गौरव को सब कुछ बता दे की हाँ उसके जीवन में कोई था.... था कोई जिसके साथ उसने ये सपने देखे थे... पर अगले ही पल माँ पापा की बात याद आ जाती थी। कितना कठिन हो है दो अस्तित्व जीना ये नंदिनी जैसी लड़की ही जान सकती थी।  वो स्वयं को  कोस भी नहीं सकती थी कि उसका और कुणाल में प्रेम न होता तो आज यह न होता....  कुणाल के साथ बीते इतने दिनों में उसने कई जन्म जी लिए थे और हर  जन्म में उसी के साथ जीने की इच्छा भी की थी । देखते ही देखते एक - एक दिन बीतता है हर दिन बीतती है उसकी परिस्थितियाँ ,नही बीतता है उसका द्वंद्व। एक - एक कर रश्मों को बेमन से निभाती नंदिनी सजीवता और निर्जीवता के मध्य थी शून्य सी रहती है ।“सुजाता जी नंदिनी को बुलाइए पंडित जी फेरों के बुला रहे हैं” अनामिका सुजाता से कहती है ।काँपते  हुए हाथों सुजाता नंदिनी को उसके कक्ष से लग्न मंडप की ओर ले आती है समझ नहीं आता है सुजाता के हाथों का कंपन ‘ रूढ़िगत  सामाजिक  संस्कारों का परिणाम है या मातृत्व , वात्सल्य और  प्रेम के पराजय का। ’ नंदिनी उसी लग्न मंडप में थी जिसका स्वप्न वह कुणाल के साथ देखती थी। नंदिनी की माँग में कौन सा सिंदूर सच है ;  यह प्रत्यक्ष लाल सिंदूर या माथे पर परा कुणाल के प्रेम और समर्पण का चुंबन... कुणाल के वो आँसू जो नंदिनी की माँग में स्थान घेर लिए थे ।मानों उन आँसुओं को अपना शास्वत स्थान चाहिए था। 
कन्यादान में अवधेश के हाथों से जो दुग्धधार निकल रही थी उसकी उज्जवलता में घर की मिथ्या  सामाजिक प्रतिष्ठा तो रह गई पर वो धारा जो गौरव के हाथों पर पड़े नंदिनी के हाथों से गुजर रही थी उसमें नंदिनी के बरसों के सपने, उसका अटूट प्रेम और विश्वास बह कर निकल रहा था । नंदिनी को मिल चुकी थी नयी बेड़ियों के रूप में आजादी.....। समझ कठिन  है कि  कौन गलत  है एक माँ बाप का बचपन से किया अगाध अनन्य वात्सल्य,नियति या ईश्वर, नंदिनी का अटूट समर्पण या दोषी है ‘ प्रेम ' जो बिना सोचे समझे पूर्व योजना के उपज जाता है और जिसकी जड़ें कई बार वट वृक्ष जितनी सघन जटिल हो जाती हैं जो उखड़ने से उखड़े...  चाह कर भी नहीं। 
             - ©केतन यादव
           

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