उतने रंग छिपाए थे तुम

उतने रंग छिपाए  थे तुम 
     जितने फागुन में ना बरसे ।

जिन आँखों में इस दुनिया के 
   रंग    सभी    बेरंग   पड़े  थे 
      एक  उदासी  थी  नींदों  में 
        सारे   सपने   तंग  पड़े  थे 
तुम छूटे रंग सारे छूटे 
  तुम को पाकर थे जो हरषे। 

परत परत चेहरे पर उभरे 
  रंग  बसंती औ' पतझर के 
    दोनों  मिलकर  एक हुए थे 
      रंग  नदियों के ,  हैं सागर के 
धरती प्यासी व्याकुल बादल 
    जितने सावन में ना तरसे। 

उतने रंग छिपाए  थे तुम 
     जितने फागुन में ना बरसे । 
         © केतन यादव
           18 मार्च 2022 

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