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उतने रंग छिपाए थे तुम

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उतने रंग छिपाए  थे तुम       जितने फागुन में ना बरसे । जिन आँखों में इस दुनिया के     रंग    सभी    बेरंग   पड़े  थे        एक  उदासी  थी  नींदों  में          सारे   सपने   तंग  पड़े  थे  तुम छूटे रंग सारे छूटे    तुम को पाकर थे जो हरषे।  परत परत चेहरे पर उभरे    रंग  बसंती औ' पतझर के      दोनों  मिलकर  एक हुए थे        रंग  नदियों के ,  हैं सागर के  धरती प्यासी व्याकुल बादल      जितने सावन में ना तरसे।  उतने रंग छिपाए  थे तुम       जितने फागुन में ना बरसे ।           © केतन यादव            18 मार्च 2022 

#ट्रेनकेबाहरसे

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मानों बाहर से कोई प्राण खींच रहा हो ... बुला रहा हो घुलने मिलने समा जाने के लिए..... प्रकृति के अनंत सघन विस्तार में... मुझे अपनी देह की सीमा और क्षणिक और नश्वर लगने लगती है और असीम में मिलने की अकुलाहट और कष्टप्रद । मैंने ऐसे ही प्रेम किया है ... खुद को बार बार भुला देने तक ... घुला देने तक । शीशम और साखू के लंबे पत्रों से प्रसारित वायु न जाने कौन सा मादक गंध लिए हुए है । संभवत: वनों में से सभी फूलों , नयी अर्धविहसित अर्धविकसित कलियों , पराग कणों और कोपलों को छूते हुआ ये हवा आ रही है जिसका स्पर्श शरीर को परत दर परत का एहसास करा रहा है ।    चलती हुई रेल की घड़घड़ाहट की ध्वनि हवा के साथ मिलकर मानों कोई विशेष वाद्ययंत्र बजा रही हो ..... सब कुछ नादात्मक सब कुछ लयात्मक सा । न जाने मैं वातावरण खोज लेता हूँ या वातावरण मुझे खोज लेता है पर सब कुछ प्रतिक्षण प्रतिपल और सुंदर और भी सुंदर होता जा रहा है । चलती हुई रेल के अकेले डिब्बे में बैठा मैं अब केवल मैं हूँ। इस अकेलेपन को और अपार अंतराल को भरने की कोशिश चारों तरफ है । मेरा गंतव्य भी इस ट्रेन का आख़िरी स्टेशन है , यात्री रास्ते में