#ट्रेनकेबाहरसे





मानों बाहर से कोई प्राण खींच रहा हो ... बुला रहा हो घुलने मिलने समा जाने के लिए..... प्रकृति के अनंत सघन विस्तार में... मुझे अपनी देह की सीमा और क्षणिक और नश्वर लगने लगती है और असीम में मिलने की अकुलाहट और कष्टप्रद । मैंने ऐसे ही प्रेम किया है ... खुद को बार बार भुला देने तक ... घुला देने तक । शीशम और साखू के लंबे पत्रों से प्रसारित वायु न जाने कौन सा मादक गंध लिए हुए है । संभवत: वनों में से सभी फूलों , नयी अर्धविहसित अर्धविकसित कलियों , पराग कणों और कोपलों को छूते हुआ ये हवा आ रही है जिसका स्पर्श शरीर को परत दर परत का एहसास करा रहा है । 
  चलती हुई रेल की घड़घड़ाहट की ध्वनि हवा के साथ मिलकर मानों कोई विशेष वाद्ययंत्र बजा रही हो ..... सब कुछ नादात्मक सब कुछ लयात्मक सा । न जाने मैं वातावरण खोज लेता हूँ या वातावरण मुझे खोज लेता है पर सब कुछ प्रतिक्षण प्रतिपल और सुंदर और भी सुंदर होता जा रहा है । चलती हुई रेल के अकेले डिब्बे में बैठा मैं अब केवल मैं हूँ। इस अकेलेपन को और अपार अंतराल को भरने की कोशिश चारों तरफ है । मेरा गंतव्य भी इस ट्रेन का आख़िरी स्टेशन है , यात्री रास्ते में आते हुए हर प्लेटफॉर्म पर इस ट्रेन को और मुझे अकेला छोड़ते जा रहे हैं । संभवत: यात्री मुझे कभी भर ही नहीं पाए तो खाली कैसे करेंगे । हाँ पर स्वयं को भरने की तलाश जारी है । ट्रेन अपने पूरे वेग में थी अनेको पड़़ावों से हाथ मिलाकर छोड़ती हुई ट्रेन तेजी से गुज़र रही थी और मुझे भ्रम होता रहता है  “ बाहर सब कुछ तेज़ी से भाग रहा है या मैं ।” 
           मैं अपने भीतर के मैं को थोड़ा स्थिर करता हूँ सम्भालता हूँ पर बहकने से नहीं बल्कि बुद्धि को सोचने से । इस असीम वातावरण में मैं खुद को बहकने के लिए अकेला छोड़ देना चाहता हूँ ।पर क्या सच में बहकने के लिए या बहलने के लिए ? इतना भी नहीं सोचने देना चाहता हूँ मन को अब उसे इतना भी अवकाश नहीं देना चाहता हूँ । ट्रेन की खिड़की के रास्ते निकलकर मन हवाओं से होते हुए पड़ों की अलग अलग शाखों पर लटक जा रहा है कभी इस शाख पर कभी उस शाख पर । वसंत अभी वन के ऊपर ऊपर ही है शायद अच्छे से प्रवेश नहीं कर पाया है । पत्ते टप- टप टूटकर गिर रहे हैं और मन शाखों से टप टप टूटते उन पत्तों को पर मुझे समझ नहीं आ रहा है कि टप-टप तो बरसात से इन्हीं पत्तों से छनकर पानी गिरते है पर पत्ते ; शायद मन सुनना चाह रहा है पत्तों के झरने गिरने की आवाज़ को ।...... शूSssss मैंने फिर बुद्धि को शांत कराया ; न जाने क्यूँ ये मेरे और मेरे मन के बीच आ जा रही है उस सूक्ष्म को मैं केवल महसूस करना चाह रहा हूँ उसे तुम शब्द क्यूँ देना चाहती हो बुद्धि ? अब ट्रेन जंगल छोड़ते हुए आगे गुजरने लगी । मुझे ध्यान आया कि मेरा मन वहीं शाखाओं पर लटका है मैंने झट से खींचने की चेष्टा कि हलाँकि मुझे इस बात का बोध भी है और अभ्यास भी कि मैंने जब जब मन को तेजी से खींचा है मन चोटिल हो गया है । 
                                - © केतन 
                                      15 march 2022 

Comments

  1. यात्रा सफल रही दोस्त,
    इतनी खूबसूरती से उस एहसास और भावों को शब्द रूप दिया गया है, काबिलेतारिफ है।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

उतने रंग छिपाए थे तुम

बेड़ियों में आजादी

#दिवाली